भीडतंत्र की आड में लोकतंत्र का चीरहरण

भीडतंत्र की आड में लोकतंत्र का चीरहरण

- डा. रवीन्द्र अरजरिया




लोकसभा निर्वाचन के दौरान मनमाने आचरण करने वालों की संख्या में निरंतर इजाफा होता जा रहा है। डराने-धमकाने से लेकर आक्रमण करने तक की खबरों का बाहुल्य होता जा रहा है। कहीं राजनैतिक दलों से जुडे असामाजिक तत्वों व्दारा किये जा रहे आपराधिक कृत्यों का प्रत्यक्षीकरण हो रहा है तो कहीं असभ्य भाषा का प्रयोग हो रहा है। कहीं चुनावी सभाओं में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने वाले वक्तव्य दिये जा रहे हैें तो कहीं आने वाले समय में परिणाम भुगतने की चेतावनियां जारी हो रहीं हैं। 


कहीं आपराधिक घटनाओं की संभावनाओं पर सुरक्षा बलों की छापेमारी को अवैध बताकर पार्टी कार्यकर्ताओं को बचाने की मुहिम छेडी जा रही है तो कहीं न्यायिक प्रक्रिया की आड में मनमाने आचरण पर पर्दे डाले जा रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सम्प्रदायों, जातियों, वर्गों, क्षेत्रों को बांटने का खुलकर खेल हो रहा है। निर्वाचन आयोग की विशेष निगरानी में चल रही व्यवस्था से जुडे अनेक अधिकारियों पर संवेदनशील मामलों को निरंतर अदृष्टिगत करने के आरोप लगाये जा रहे हैं। 


राजनैतिक मंचों पर असामाजिक तत्वों का जमावडा, अवैध ढंग से हूटर और विशिष्ट बत्तियां लगीं गाडियां, दूसरे राज्यों से बुलायी गई दबंगों की भीड, उपहारों में दी जाने वाली सामग्रियां, बेमानी रकम की खेपों सहित अनेक कानूनी प्रतिबंधों की खुलेआम धज्जियां उडाई जा रहीं हैं। निर्वाचन से संबंधित शिकायतों के निस्तारण हेतु आवेदक को ही प्रताडित करने के अनेक मामले सामने आये हैं। चौराहों से लेकर चौपालों तक में मतदान केन्द्रों पर जानबूझकर धीमगति से होने वाला कार्य, जागरूकता के नाम पर मात्र औपचारिकताओं की पूर्ति और संवेदनशील केन्द्रों पर स्थानीय प्रशासन की लचर कार्य प्रणाली की चर्चायें चटखारे लेकर कही-सुनी जा रहीं हैं। 


दलों के कद्दावर नेताओं ने भविष्यवक्ताओं का आसन ग्रहण कर लिया है। वे भविष्य के परिणामों, प्रतिव्दन्दियों की स्थिति और सरकार के गठन की घोषणायें कर रहे हैं। संचार माध्यमों व्दारा सामाजिक सोच को प्रभावित करने के लिए पूर्व निर्धारित योजनाओं को कार्यरूप में परिणित करने में पूरा ताकत झौंकी जा रही है। अफवाहों का बाजार गर्म के लिए सोशल मीडिया के अनेक प्लेटफार्म का उपयोग धडल्ले से हो रहा है। उत्तेजना फैलाने वाले कथानकों की भरमार हो रही है। लाल, हरा और भगवां रंग भी अब दलों की मानसिकता का प्रतीक बनता जा रहा है। 


चोटी-टोपी, झंडा-डंडा और मण्डल-कमण्डल जैसे प्रतीकों को भुनाने की कोशिशें तेज हो रहीं हैं। तुष्टिकरण के लिए होती घोषणायें, निरंतर हरामखोरी को बढावा दे रहीं हैं। कहीं विदेशी गुरु के व्दारा अमेरिका की विरासत व्यवस्था को देश में लागू करने की वकालत की जा रही है तो कहीं सीमापार से आने वाली धनराशि से लाल सलाम के सहारे देश की हरीभरी धरती को रक्तरंजित करने की कोशिशें हो रहीं हैं। अपराधियों को शहीद, घुसपैठियों को आत्मा और दंगों को जेहाद के रूप में परिभाषित करने वालों की संख्या में निरंतर इजाफा होता जा रहा है। वे सरकारी संरक्षण, सुरक्षा और सुविधाओं पर सीना ताने घूम रहे हैं। यह सब चोरी छुपे नहीं बल्कि डंके की चोट पर सार्वजनिक मंचों पर गरज के साथ हो रहा है। 



संवैधानिक व्यवस्था को लागू करने वाले अनेक उत्तरदायी वेतनभोगियों के ठीक सामने होने वाली असंवैधानिक घटनाओं ने देश की कार्यपालिका के एक बडे भाग की निष्ठा, कर्तव्यपरायणता और संवेदनशीलता पर प्रश्नचिन्ह अंकित करना शुरू दिये हैं। सत्ता का सिंहासन हासिल करने के लिए भीडतंत्र की आड में लोकतंत्र का चीरहरण होने लगा है। चुनावी जंग में पर्दे के पीछे से पैसों की चमक बढती जा रही है। जातियों के स्वयं-भू ठेकेदारों, क्षेत्रों के स्व:घोषित छत्रपतियों और सम्प्रदायों के अनगिनत मुखियों के महलों में महफिलें सज रहीं हैं। 


फरमान जारी हो रहे हैं। मृगमारीचिका के पीछे दौड लगवाई जा रही है। जीत का भरोसा ही नहीं कीर्तिमान मत मिलने की गारंटी तक दी जा रही है। यूं तो स्वाधीनता के बाद से ही लालच, स्वार्थ और चालबाजियों का बोलबाला रहा है परन्तु इस बार तो पेपरलैस, कैशलैस, प्रूफलैस जैसे हथियारों से अपराधों को साक्ष्यरहित बनाया जा रहा है। कहीं एप्ल व्दारा अपने मोबाइल का डाटा न देने की दंबगी दिखाई जा रही है तो कहीं वाट्सएप व्दारा नियमों को मानने से इंकार किया जा रहा है। राष्ट्रहित के मुद्दों पर भी विदेशी कम्पनियों की मनमानियां चरमसीमा पर देखने को मिल रहीं हैं। 


प्रतिबंधित ऐप का उपयोग करके षडयंत्रकारी देश में अस्थिरता फैलाने में जुटे हैं। देश के नागरिकों को जनसामान्य और विशिष्ट व्यक्ति की श्रेणियों में विभक्त कर दिया गया है। पूछतांछ से लेकर हिरासत काल तक में दोहरे मापदण्ड देखने को मिल रहे हैं। खास लोगों के लिए रात में भी न्यायालय के दरवाजे खुलते हैं और आम नागरिक अपने जीवन का एक बडा भाग न्याय की आस में गुजार देता है। चांदी की चमक से भीड जुटाई जाती है, भीड की दम पर अराजकता फैलाई जाती है, अराजकता के मध्य सरकारी-गैर सरकारी सम्पत्ति नष्ट की जाती है और फिर सरकारों को किया जाता है ब्लैक मेल यानी भयादोह। 


किसानों के नाम पर आंदोलन हो या ट्रांसपोर्ट्स यूनियन की हडताल। इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन की धमकी हो या फिर जातिगत आरक्षण का मुद्दा। हर जगह भीडतंत्र का वर्चस्व देखने में आ रहा है और यही कारण है कि निर्वाचन की प्रक्रिया के दौरान भी षडयंत्रकारियों व्दारा पुराने हथकण्डों को नये रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा है ताकि व्यवस्था को अव्यवस्था की बानगी दिखाकर स्वयं के अनुरूप ढाला जा सके। लोकसभा के निर्वाचन में दो चरण के मतदान पूर्ण हो चुके हैं। पहले चरण के मतदान के दौरान जो अनियमिततायें सामने आईं, दूसरे चरण में भी अनेक स्थानों पर उन्हीं की पुनरावृत्ति हुई। 


पहली बार का खामियाजा यदि दूसरी बार भी भुगतना पडे तो कार्य करने वालों की मंशा पर प्रश्नचिन्ह अंकित होना स्वाभाविक ही हैं। अब देखना यह है कि तीसरे चरण के मतदान में तंत्र की संवेदनशीलता कितनी विकसित होती है और कर्तव्यबोध का क्या स्वरूप सामने आता है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ पुन: मुलाकात होगी।


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