बेमानी नहीं है संविधान पर छिड़ी बहस

बेमानी नहीं है संविधान पर छिड़ी बहस

- तनवीर जाफ़री

                 


        

18 वीं लोकसभा में अधिकांश विपक्षी सांसदों द्वारा शपथ ग्रहण के बाद 'जय संविधान ' के स्वर बुलंद करना और अपने हाथों में संविधान की प्रतियां लेकर शपथ ग्रहण करना अनायास ही नहीं था। वास्तव में नई लोकसभा में इस मुद्दे पर विमर्श की शुरुआत तो तभी हो चुकी थी जब तीसरी बार सरकार बनाने जा रहे नरेंद्र मोदी नई लोकसभा निर्वाचित होने के बाद जब पहली बार संसद भवन के सेंट्रल हॉल में एनडीए संसदीय दल की बैठक में पहुंचे उस समय उन्होंने सबसे पहले भारतीय संविधान को अपने हाथों में ससम्मान उठाकर अपने मस्तक से लगाया और संविधान को नमन करने के बाद एनडीए की बैठक में शामिल हुए। 


अपनी एक्स पोस्ट में उन्होंने यह तस्वीर भी सांझी की। संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद मोदी ने कहा कि 'हम नेशन फर्स्ट के सिद्धांत पर काम करेंगे और सबको साथ लेकर चलेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि हम मध्यम वर्ग को मज़बूत करेंगे और सर्वधर्म सद्‌भाव के सिद्धांत पर काम करेंगे।' 


प्रधानमंत्री द्वारा संविधान को मस्तक से लगाने के बाद ही विपक्ष ने भी यह ज़रूरी समझा कि चूँकि 2024 के लोकसभा चुनाव में 'संविधान बचाओ ' विपक्ष द्वारा उठाया गया एक मज़बूत मुद्दा था लिहाज़ा क्यों न उसके निर्वाचित सांसद में अपने पहले प्रवेश में हाथों में संविधान की प्रति रखें और 'जय संविधान ' का स्वर संसद में बुलंद कर देश व दुनिया को यह सन्देश दें कि संविधान बचाने की असली लड़ाई दरअसल विपक्षी दलों यानी इण्डिया गठबंधन द्वारा लड़ी गयी है। 

                                

सवाल यह है कि 'संविधान ख़तरे में है ' या संविधान बदला जा सकता है,इस विमर्श की शुरुआत हुई कहाँ से ? विपक्षी दलों के किसी नेता ने तो संविधान बदलने की बात नहीं की ? जिस अयोध्या विवाद को राजनैतिक मुद्दा बनाकर भाजपा ने स्वयं को स्थापित किया उसी (फैज़ाबाद ) लोकसभा क्षेत्र के भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह ने लोकसभा चुनाव के दौरान ही यह विवादित बयान किसके इशारे पर दिया कि - 'सरकार बनाने के लिए 272 सांसद चाहिए लेकिन संविधान संशोधन या संविधान बदलने के लिए दो तिहाई बहुमत चाहिए, नियम बदलना होगा और संविधान भी बदलना होगा'?  


ठीक उसी दौरान राजस्थान के नागौर लोकसभा से भारतीय जनता पार्टी उम्मीदवार ज्योति मिर्धा ने भी सार्वजनिक तौर पर कहा कि -'संवैधानिक बदलाव के लिए लोकसभा और राज्यसभा में प्रचंड बहुमत होना चाहिए' । इसी तरह मेरठ से बीजेपी प्रत्याशी अरुण गोविल ने भी बीच चुनाव में कहा कि " जब हमारे देश का संविधान बना था उसमें धीरे-धीरे परिस्थितियों के हिसाब से बदलाव हुए हैं।  बदलाव करना प्रगति की निशानी होती है, उसमें कोई ख़राब बात नहीं है। तब परिस्थितियां कुछ और थीं, आज की परिस्थितियां कुछ और हैं।  


संविधान किसी एक व्यक्ति की मर्ज़ी से नहीं बदलता है, सर्वसम्मति होती है तो बदलता है, अगर ऐसा कुछ होगा तो किया जाएगा। 'जब गोविल से पूछा गया कि क्या 400 पार का नारा इसलिए दिया गया है क्योंकि सरकार की ऐसा कुछ बड़ा करने की इच्छा है? " इस सवाल पर गोविल का जवाब था कि , "मुझे ये महसूस होता है, क्योंकि मोदी जी ऐसे ही कोई बात नहीं कहते हैं, उसके पीछे कोई ना कोई अर्थ ज़रूर होता है." क्या भाजपा लोकसभा प्रत्याशियों द्वारा उसी संविधान के लिए इतनी गंभीर बातें किया जाना जिसे स्वयं प्रधानमंत्री सर माथे लगा रहे हैं,कोई मामूली बात है ? विपक्ष आख़िर इसे मुद्दा क्यों न बनाये ?


                           

इसी तरह कर्नाटक से छह बार बीजेपी के सांसद रहे अनंत कुमार हेगड़े ने भी संविधान बदलने को लेकर गंभीर बयान दिया था। हेगड़े ने गत 28 वर्षों में भाजपा प्रत्याशी के रूप में छह बार उत्तर कन्नड़ लोकसभा सीट से जीत हासिल की है लिहाज़ा उनके बयान को भी हल्के से नहीं लिया जा सकता। उन्होंने यह दावा किया था कि ' भाजपा का 400 लोकसभा सीटें जीतने का लक्ष्य संविधान को बदलना है। हेगड़े ने एक सभा में कहा था कि "संविधान को 'फिर से लिखने' की ज़रूरत है। 


कांग्रेस ने इसमें अनावश्यक चीज़ों को ज़बरदस्ती भरकर संविधान को मूल रूप से विकृत कर दिया है, ख़ासकर ऐसे क़ानून लाकर जिनका उद्देश्य हिंदू समाज को दबाना था, अगर ये सब बदलना है, तो ये मौजूदा बहुमत के साथ संभव नहीं है." हेगड़े ने कहा था कि '' ये किया जा सकता है, क्योंकि लोकसभा में अभी कांग्रेस नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत है, फिर भी चुप रहें, तो ये संभव नहीं है। '' उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि पार्टी को राज्यसभा और राज्यों में भी दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत है।'  इसी तरह देश में और भी अनेक भाजपाई नेता व मंत्री आदि 400 पार के नारे से उत्साहित होकर इसी आशय के बयान देते रहे। 

                      

जब भाजपा के प्रमुख नेताओं द्वारा इस तरह के संविधान विरोधी बयान दिये जा रहे थे, तत्काल रूप से विपक्ष उन बयानों को मुद्दा बनाकर भाजपा को संविधान विरोधी ठहरा देता था। नतीजतन 'डैमेज कंट्रोल ' के लिये उसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस मुद्दे पर स्वयं मोर्चा संभालना पड़ा था। विपक्ष के बार-बार ये कहने पर कि भाजपा संविधान को बदलना चाहती है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पलटवार करते हुए एक चुनावी रैली में यह जवाब देना पड़ा था 'कि उनकी सरकार संविधान का सम्मान करती है और यहां तक कि बाबा साहेब ख़ुद भी आ जाएं तो भी संविधान ख़त्म नहीं कर पाएंगे।'  


परन्तु सवाल यह है कि भाजपा ने संविधान बदलने की बात करने वाले किसी भी नेता के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों नहीं की ? इसके अलावा इस समय हिन्दू राष्ट्र निर्माण की बातें करना भी गोया फ़ैशन बन गया है। भाजपा व संघ के तमाम लोग,साधू ,प्रवचन कर्ता,सरे आम हिन्दू राष्ट्र निर्माण की पुरज़ोर वकालत करते दिखाई दे रहे हैं। यह मांग ही अपने आप में संविधान विरोधी है। इस मांग का मतलब यही है कि हिन्दू राष्ट्र की मनोकामना रखने वालों को संविधान में दर्ज 'हम भारत के लोग ' और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द पसंद नहीं ?

                              

इसी तरह सत्ता समर्थक नेताओं की तरफ़ से ही कभी आरक्षण समाप्त करने तो कभी इस पर पुनर्विचार करने की बातें की जाती हैं। ज़ाहिर है आरक्षण का लाभ उठाने वाला वर्ग इसे अपने लिये ख़तरा समझता है। परन्तु भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की ओर से इन विषयों को लेकर अपनी स्थिति संभवतः इसलिये स्पष्ट नहीं की गयी क्योंकि उसे विश्वास था कि भाजपा पूर्ण बहुमत में आकर संविधान सम्बन्धी अपने उन मंसूबों को पूरा करेगी जो उनके नेताओं द्वारा सांकेतिक तौर पर उठाये जा रहे थे। 


परन्तु जनता ने ऐसे कई प्रत्याशियों को भी हरा दिया और प्रधानमंत्री मोदी को भी संविधान को माथे से लगाकर स्वयं को संविधान समर्थक होने का प्रमाण देने के लिये मजबूर होना पड़ा। इसलिये 18 वीं  लोकसभा की शुरुआत में ही संविधान पर छिड़ी बहस बेमानी नहीं है।                                                

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