अफ़सोस की बात है जिस मीडिया को कभी गवाह मान कर बड़ी-बड़ी बातें कही जाती थी कि भाई साहब फला खबर अखबार में निकली है आज वह मीडिया खुद इतने दलदल में जाकर फंस गई है पेट की रोटी तलाश रही है या मालपुआ....?लेकिन दुर्दशा मीडिया की होनी तो सुनिश्चित है।
किसी जमाने में आंख मूंद पर पुलिस पर विश्वास किया जाता था। पीड़ित आदमी रो कलपता थाने पहुंचता था, और आरोपी को किसी न किसी प्रकार से दंड मिलता था। एक संदेश जाता था गलत मत करो नहीं तो, पुलिस पकड़ लेगी। आज पुलिस के चरित्र के बारे में कुछ लिखने की जरूरत नहीं है पुलिस भी सब समझती है जनता भी।
मगर हम मीडिया वाले, किसी शादी के बैंड पार्टी की तरह "मातम के दिनों में" भी सरकार की पीठ सहलाने की गरज से "आज मेरे यार की शादी है" की धुन बजा रहे हैं। इसी के चलते हमारे संपूर्ण चरित्र का नाश होगा। नेताओं को जितने प्रकार की साहित्यिक गालियां दी जाती हैं, पुलिस को जो शब्द नवाजे जाते हैं उससे भी ज्यादा दमदारी के साथ मीडिया के साथ दुर्व्यवहार और गंदगी परोसी जाएगी।
एक वक्त ऐसा आएगा कि जब जैसे ही हमारे मुंह से निकलेगा मैं मीडिया वाला हूं, अगला मुझे तुरंत सरकारी दलाल समझ लेगा। जिसका रजिस्ट्रेशन मीडिया वर्कर के नाम पर भी नहीं हुआ होगा। किसी भी कौ़म की गलती हो, बिना जाति, धर्म, अपना, पराया समझे सही खबर दीजिए। मित्रों वरना एक दिन ऐसा आएगा कि आपकी झूठी ही नहीं, सही से सही ख़बर पर भी जनता थूकना भी पसंद नहीं करेगी। -डा.मेला