भूख हड़ताल के दौरान विरोधियों की इस कानाफूसी पर बड़ा आश्चर्य होता जिसमें आरोप लगता कि कथित अनशन के दौरान अमुक – अमुक छिप कर माल- मलैया कूटते हैं। यहां तक कि अनशन स्थल के पास कुछ ऐसे कथित सबूत भी फेंक दिये जाते जिससे देखने वालों को आरोप में सच्चाई नजर आए। अलबत्ता इससे भूख हड़ताल करने वालों का मनोबल कम ही टूटता था। लंबे अंतराल के बाद अनशन या भूख हड़ताल की असली ताकत का अंदाजा कुछ साल पहले अन्ना हजारे ने कराया। जब वे जनलोकपाल बिल समेत भ्रष्टाचार के विरोध में देश की राजधानी दिल्ली में अनशन पर बैठ गए। तब टेलीविजन के पर्दे पर नजरें गड़ाए हम लगातार सोचते रहते थे कि वाकई कोई इंसान क्या लगातार इस तरह भूखा रह स कता है। संभावना के अनुरूप ही तब सरकार हिल गई थी।
हैरत की बात कि उन्हीं अन्ना हजारे ने हाल में उसी मुद्दे पर फिर वैसा ही अनशन–आंदोलन किया, लेकिन असर के मामले में यह 2011 के पासंग भी नहीं पहुंच सका। अब तामिलनाडू से आई उस खबर पर गौर कीजिए जिससे पता चलता है कि जल विवाद पर अनशन करने वाले तमाम राजनेताओं ने चंद घंटों में ही भूख–हड़ताल से नाता तोड़ बिरियानी का भोग लगाना शुरू कर दिया। दरअसल भूख का मनोविज्ञान ही कुछ ऐसा है। बचपन में बड़ों की देखा–देखी हमने भी कुछ पर्व–त्योहारों पर उपवास रखना शुरू किया, लेकिन जल्द ही महसूस हो गया कि ऐसे मौकों पर जहन में खाने–पीने की बातें आम दिनों की तुलना में अधिक आती हैं तो जल्द ही इसका ख्याल भी छोड़ दिया।
हालांकि उस जमाने में अनेक बाबाओं के बारे में सुनता था कि फलां पहुंचे हुए संत हमेशा भकोसने में लगे नहीं रहते। वे तो बस दो टाइम फलां–फलां फलों का फलाहार और सिंघाड़े के आटे से बने हलवा ही खाते हैं। या फिर बहुत हो गया तो काजू और पिस्ता बादाम के साथ जूस वगैरह–वगैरह ले लिया। यानी बाबा के महत्व का अंदाजा उसके भूख सहने की क्षमता से लगाया जाता रहा है। भुकखड़ों की पार्टी ही नहीं बल्कि सूटेड–बुटेड लोगों की बंद कमरे में होने वाली बैठकों के बाद भी मैने जेंटलमैनों को खाने की मेज पर टूट पड़ते देखा है। जिसे देख कर हैरानी होती कि इतने बड़े–बड़े लोगों को भी कितनी तेज भूख लगती है। वाकई भूख का इतिहास–भूगोल बड़ा दिलचस्प रहा है।