-घनश्याम भारतीय/ पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम बहुत कुछ कहते हैं। इनमें से राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भाजपा की करारी हार और कांग्रेस को मिली संजीवनी ने सियासत की एक नई इबारत लिखते हुए लोकसभा के आगामी आम चुनावों की दिशा भी तय कर दी है। ऐसे में कांग्रेस को फूंक-फूंक कदम रखने और भाजपा को आत्ममंथन की जरूरत आ गई है। वह भी ऐसे समय में जब कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रही भाजपा के सामने मोदी का तिलिस्मी महल ढहने लगा है। तीन राज्यों में भाजपा के हाथों से सत्ता छिनना इस बात का सबूत है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि किसानो और बेरोजगारों की अनदेखी भाजपा के गले की हड्डी बन गई।
यह सही है कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने वैश्विक मित्रता बढ़ाने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाया।जिसमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली है। उनकी विदेश नीति निसंदेह अच्छी है परंतु इसके साथ ही देश की जनता की कुछ जमीनी जरूरतें हैं उसे भी पूरा करना प्राथमिकता में होना चाहिए। देश की रीढ़ माने गए किसानों की पीड़ा को भी समझने की आवश्यकता है। बेरोजगारी का दंश झेल रहे युवाओं के हाथों को काम भी उतना ही जरूरी है। इस पर समय रहते ध्यान दिया गया होता तो शायद भाजपा को इतनी दुर्गति का सामना न करना पड़ता। दूसरी तरफ अटल बिहारी वाजपेई का कार्यकाल बीतने के बाद वनवास काट रही भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी और शाह की जोड़ी ने जीवनदान दिया था। तब लगा था कि मोदी मैजिक भाजपा को दीर्घकाल तक सत्ता से दूर नहीं होने देगा। कुछ हद तक ऐसा हुआ भी। जब उत्तर प्रदेश सहित कई अन्य राज्यों की बागडोर भाजपा के हाथ आई। इसके बाद तो भाजपा ने मोदी के तिलिस्म का एक बड़ा सा महल खड़ा कर लिया था। यह महल यूपी के उपचुनाव में हिला था, जो हालिया हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में ढहने लगा।
पांच राज्यों में हुआ विधानसभा का चुनाव कुछ महीने बाद 2019 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था। जिसमे भाजपा की हार और कांग्रेस की ताजपोशी के बाद तमाम तरह की अटकलें तेज हो गई हैं। सोशल मीडिया से लेकर तमाम अखबार इससे पटे पड़े हैं। इस जनादेश को लेकर हो रही बहस बहुत आगे तक जा रही है। माना जा रहा है कि इस परिणाम का व्यापक असर 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में और बड़े रूप में दिखेगा। भाजपा समर्थकों द्वारा तैयार किया गया मोदी का तिलिस्मी महल अब जब रहने लगा है तब नेता मतदाताओं की बेवफाई का रोना रो रहे हैं। वे इस बात को भूल गए हैं कि देश की जनता को 2014 में जो लॉलीपॉप थमाया गया था उसका क्या हुआ ? क्या देश के गरीबों, मजदूरों, किसानो, बेरोजगारों के अच्छे दिन आए ? क्या विदेशी बैंकों में छुपा कर रखे गए काले धन वापस भारत आ पाए ? पन्द्रह लाख के वायदे के सापेक्ष आम नागरिक के खाते में कितने धन आए ? कश्मीर में धारा 370 और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का क्या हुआ ? गंगा, गोमती अथवा किसी एक नदी का जल निर्मल हुआ ? देश की सीमाएं सुरक्षित हुई और वहां सैनिकों की शहादत रुकी ? इसके अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान के कुछ स्थानीय मुद्दे थे उनका क्या हुआ ? यह जानते हुए कि विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे गौड़ हो जाते हैं और स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं। खाद, पानी, बिजली, शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य का मुद्दा जोर पकड़ता है। क्या यह व्यवस्थाएं पहले से बेहतर हुई ? अकेले एससी-एसटी एक्ट के सहारे ही चुनाव नहीं जीता जा सकता।
दूसरी तरफ भाजपा के तमाम नेताओं से लेकर अदने कार्यकर्ता तक सभी को इस बात का अभिमान हो गया था कि उनके पास तो नरेंद्र मोदी जैसा प्रभावशाली नेतृत्वकर्ता है। खुद पार्टी के नेता जैसे भी हो, संगठन चाहे जो कुछ कर रहा हो, परंतु नरेंद्र मोदी से जनता बहुत प्रभावित है। उनके जादुई सम्मोहन से जनता स्वयं खिंची चली आएगी और भाजपा का विजय रथ कभी नहीं रुकेगा। विश्वास यह भी था कि मोदी के ओजस्वी भाषणों में की गई अपील मतदाता कभी नजरअंदाज कर ही नहीं सकता। लोगों ने मान लिया था कि अब भाजपा के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को रोकने का दम किसी में नहीं है। बस इसी गुमान में फूलती उफनाती भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का सपना भी देख डाला। मंचों से कांग्रेस अध्यक्ष को पप्पू जैसे हीन संबोधनों से उनका मजाक उड़ाया जाता रहा। सही तो यह भी है कि भाजपा अपनी जमीन को भूल गई और कांग्रेस उसकी देखभाल करते हुए उसे उर्वर बनाती रही।
सपनों की इसी उड़ान के बीच भाजपा ने मोदी का जो तिलिस्मी महल खड़ा किया था, वह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो धराशाई हो गया। यूपी, बिहार में भी अब अच्छी स्थिति के संकेत नहीं है। जब किसी को अहंकार हो जाता है तो उसे आलस्य से भी घेर लेता है। भाजपा इन्हीं दोनों का शिकार हुई है। इन चुनाव परिणामों ने यह भी साबित किया है कि पैसे की चकाचौंध में मीडिया के सहारे चुनाव नहीं जीता जा सकता। चुनाव जीतने के लिए जन मन जीतना होगा। यह तभी संभव है जब विकास के मुद्दे पर विधिवत काम हो।
कंस और रावण का अंत इस बात का उदाहरण है कि अहंकार किसी का ज्यादा दिन नहीं चलता। उसे किसी न किसी दिन तो टूटना ही है। आमतौर पर यही होता है कि सत्ता में आने के बाद हर पार्टी को घमंड हो जाता है और उसके नेता बेलगाम हो जाते हैं। उन्हें लगने लगता है कि सत्ता अब उनकी जागीर बन चुकी है। बेरोकटोक जो चाहे कर सकते हैं। जिस दिन आम मतदाता इस बात को समझ लेता है उसी दिन से हुक्मरानों का पतन शुरू हो जाता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव के परिणाम तो कम से कम यही कहते हैं। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भरोसे ही न रहकर भाजपा के प्रत्येक नेता को विकास के मुद्दे पर जनता के लिए कुछ करना होगा। तभी 2019 की राह आसान हो पाएगी वरना भैंस को तो पानी में जाना ही है।