- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
केंद्र सरकार ने रबी सीजन की गेहूं, सरसों सहित छह प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर दी है। पिछले कुछ सालों से बुवाई के समय ही फसलों के एमएसपी की घोषणा करना अच्छी परंपरा मानी जा सकती है। इससे किसान भी कौन सी फसल लेनी है इसका निर्णय आसानी से कर पाते हैं। एमएसपी की घोषणा करते समय यह भी दावा किया गया है कि इन सभी छह फसलों के एमएसपी का निर्धारण लागत से अधिक किया गया है जिससे किसानों के लिए यह फसलें लाभकारी सिद्ध हो सके। दावों की माने तो लागत की तुलना में सर्वाधिक 102 प्रतिशत अधिक एमएसपी गेहूं की घोषित की गई है, सबसे कम कुसुम की लागत से 52 प्रतिशत अधिक है तो चना और जौ की लागत से 60 फीसदी अधिक घोषित की गई है। सरसों की लागत से 98 फीसदी तो मसूर की 89 प्रतिशत अधिक राशि तय की गई है। निष्कर्ष रुप से यह कहा जा सकता है कि लागत की तुलना में सभी छह फसलों की एमएसपी दरों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की गई है। सरकार की मानें तो लागत में खाद-बीज, कीटनाशक, सिंचाई पर व्यय के साथ ही मानव श्रम का भी समावेश किया गया है। ऐसे में लागत से अधिक राशि मिलना किसानों के लिए लाभकारी हो सकता है। पर यक्ष प्रश्न यही है कि फसल आने के बाद किसान को यह मूल्य मिलेगा ही इसकी क्या गारंटी हैं ? सारा झगड़ा इसी को लेकर है कि एमएसपी घोषित होती ही ऐसी व्यवस्था सुनिष्चित होनी चाहिए कि किसान को उसकी फसल का सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मूल्य तो मिल ही जाएं। यदि इस तरह की फूलप्रुफ व्यवस्था इनविल्ट हो जाए तो किसानों को सही मायने में एमएसपी व्यवस्था का फायदा मिल सकता है। दरअसल सब कुछ होने के बाद भी किसान आज भी ठगा महसूस करता है। यही कोई डेढ़ दो माह पुरानी बात होगी जग आमनागरिकों को टमाटर दो सौ रुपए से भी अधिक में खरीदना पड़ा आज वहीं टमाटर मण्डियों में दस रुपए के आसपास आ गया है। अब प्रश्न यह है कि टमाटर के दो सौ रुपए होने का लाभ आखिर ना तो उत्पादक किसान को मिला और ना ही आमनागरिकों को मिला। ऐसे में दोनों ही ठगे महसूस करते रह गए तो सरकार की किरकिरी हुई वह अलग।
देश में 1966-67 में सबसे पहले गेहूं की सरकारी खरीद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक अगस्त 1964 को एलके झा की अध्यक्षता में इसके लिए कमेटी घटित की थी। गेहूं की समर्थन मूल्य पर खरीद व्यवस्था का एक विपरीत प्रभाव सामने आने पर कि किसान अन्य फसलों की जगह गेहूं की फसल पर ही केन्द्रित होने लगे तो ऐसी स्थिति में सरकार ने अन्य प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरें में लाने का निर्णय किया। केन्द्र सरकार द्वारा सीएसीपी यानी कि कृषि मूल्य एवं लागत आयोग की सिफारिश पर कृषि जिंसों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाने लगी। आज देश में 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। इसमें 7 गेहूं, धान आदि अनाज फसलें, 5 दलहनी, 7 तिलहनी, 4 नकदी फसलों के समर्थन मूल्य की घोषणा की जाती है। नकदी फसलों में गन्ना के सरकारी खरीद मूल्य की सिफारिश गन्ना आयोग द्वारा की जाती है तो गन्ने की खरीद भी सीधे गन्ना मिलों द्वारा की जाती है। इसी तरह से कपास की खरीद सीसीआई यानी कि कॉटन कारपोरेशन ऑफ इण्डिया द्वारा की जाती है। मुख्यतौर से अनाज की खरीद भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से और दलहन व तिलहन की खरीद नेफैड द्वारा राज्यों की सहकारी संस्थाओं और अन्य खरीद केन्द्रों के माध्यम से की जाती है। केरल सरकार ने 16 तरह की सब्जियों के बेस मूल्य तय कर सब्जी उत्पादक किसानों को बड़ी राहत देने की पहल की है तो अब हरियाणा सरकार भी केरल की तरह हरियाणा में भी सब्जियों का बेस मूल्य तय कर कर रही है।
2004 में एमएस स्वामीनाथन आयोग ने अपनी सिफारिश में न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने का एक फार्मूला सुझाते हुए सुझाव दिया कि उत्पादन लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक एमएसपी घोषित की जाए। एमएसपी की सिफारिश करते समय सीएसीपी द्वारा देश के अलग अलग हिस्सों में फसल के अनुसार प्रति हैक्टेयर लागत, खेती के दौरान अन्य खर्चों, भण्डारण की स्थिति, विदेशों में उपलब्धता आदि पैमाने पर आकलन कर प्रत्येक फसल की एमएसपी की सिफारिश की जाती है। 2004 में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने 2018-19 में उत्पादन लागत से कम से कम डेढ़ गुणा अधिक मूल्य घोषित करने का निर्णय किया। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा एमआईएस यानी कि बाजार हस्तक्षेप योजना के तहत एमएसपी के दायरें में नहीं आने वाली फसलों की खरीद की व्यवस्था करती आई है। राजस्थान में लहसुन की खरीद, प्याज की खरीद आदि इसका उदाहरण है। इस साल रबी फसलों के लिए घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार ही न्यूनतम 52 प्रतिशत से 102 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की गई है। रबी सीजन में सर्वाधिक असर गेहूं और सरसों पर पड़ता है और इसी को ध्यान में रखते हुए गेहू की एमएसपी में लागत की तुलना में 102 प्रतिशत और सरसों की लागत की तुलना में 98 प्रतिशत अधिक घोषित की गई है। सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य के अनुसार गेहूं के 2275 रु., सरसों की 5650 रु., मसूर की 6425 रु., चना की 5440 रु., जौ की 1850 रु. और कुसुम की 5800 रु. प्रति क्विंटल घोषित किया गया है।
यह तो साफ है कि गेहूं और धान की खरीद सरकार द्वारा व्यापक स्तर पर की जाती रही है और इसका प्रमुख कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरण व्यवस्था के सुचारु संचालन और बाजार पर नियंत्रण रखना रहा है। अन्य फसलों का जहां तक सवाल है देश के अधिकांश प्रदेशों में खाद्यान्नों की खरीद एफसीआई द्वारा राज्यों के मार्केटिंग फैडरेशनों के माध्यम से सहकारी संस्थाओं द्वारा व तिलहनों और दलहनों की खरीद नैफड द्वारा भी इसी व्यवस्था के तहत किया जाता रहा है। किसी समय यह सामान्य धारणा व वास्तविकता थी कि बाजार में जब भी किसी फसल के भाव एमएसपी से नीचे आने लगते तो राज्यों के मार्केटिंग फैडरेशनों द्वारा खरीद की घोषणा करने मात्र से बाजार में भावों में हल्की तेजी तो तत्काल देखने को मिल जाती थी। इसी तरह से यह वास्तविकता भी थी कि एमएसपी पर खरीद शुरु करने के समय यह माना जाता था कि कुल उत्पादन का अधिकतम 25 से 30 प्रतिशत तक खरीद होते होते बाजार में उस फसल के भाव एमएसपी के बराबर या अधिक आ जाएंगे और वास्तविकता तो यह रही कि दस से 15 प्रतिशत तक खरीद होते होते मण्डियों में भाव लगभग एमएसपी के आसपास आ ही जाते थे। पर करीब एक दशक से स्थितियों में तेजी से बदलाव आया है। माने या ना माने पर यह काफी हद तक सही है कि एमएसपी खरीद व्यवस्था में अब निजी खरीददारों की भागीदारी बढ़ गई है। इस आरोप को सिरे से नकारा नहीं जा सकता कि छोटे किसानों से उनकी फसलों को कम दामों में खरीद कर उनके नाम से एमएसपी पर खरीद केन्द्रों पर बेच कर किसान के नाम पर उसका लाभ बिचौलिएं लेने लगे है। यही कारण है कि इस तरह के उदाहरण आम है कि कई स्थानों पर उस क्षेत्र में कुल पैदावार से भी अधिक की खरीद एमएसपी पर देखने को मिल जाती है।
दरअसल बिचौलियों ने एमएसपी खरीद व्यवस्था में सैंध लगा दी है। किसान से ही खरीद और ऑनलाईन व्यवस्था के बावजूद इस व्यवस्था का लाभ बिचौलिएं अधिक उठाने लगे हैं। सवाल यह है कि केन्द्र व राज्य सरकारें एमएसपी व्यवस्था को फूलप्रुफ बनाना सुनिश्चित कर दे और सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से मण्डियों में भाव नीचे जाते ही तत्काल खरीद आंरभ हो जाएं तो निश्चित रुप से अन्नदाता को इस व्यवस्था का पूरा पूरा लाभ मिल सकता है। इसके साथ ही इस व्यवस्था में जिस तरह से सैंध लगाई गई है उसे रोकने के भी ठोस प्रयास किए जाने आवश्यक है। कहीं ना कहीं एक बार फिर से बाजार व्यवस्था का भी अध्ययन करना पड़ेगा कि जब तक किसान की पूरी फसल बाहर नहीं आ जाती तब तक क्या कारण है कि बाजार में उस फसल के भाव एमएसपी के बराबर नहीं आते। इसका पर्दे के पीछे का खेल यही लगता है कि बिचौलियों ने इसका तोड़ निकाल लिया है और वह यह कि किसान से उसकी फसल और डिटेल ले लेते हैं और फिर किसान के नाम से लाभ यह ताकतें ले जाती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण क्षेत्र में उत्पादित फसल से अधिक खरीद के आंकड़े मिलना आम होता जा रहा है। ऐसे हालात में सरकार का और अधिक दायित्व हो जाता है ताकि व्यवस्था को प्रभावित करती बाजार ताकतों को भी व्यवस्था से हटाने का दायित्व सरकारों का हो जाता है।